मैं बहू हूँ, गुलाम नहीं
मेरा नाम सोनाली है। उम्र 29 साल। मैं भोपाल की एक प्राइवेट कंपनी में रिसेप्शनिस्ट के पद पर काम करती हूँ।
मेरी मासिक तनख्वाह 28,000 रुपये है — ज़्यादा नहीं, लेकिन मेरे लिए यही सब कुछ है।
पापा के गुजर जाने के बाद, माँ और छोटे भाई की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर आ गई थी।
कभी सोचा नहीं था कि शादी के बाद भी मैं किसी और के आदेश पर चलूँगी… लेकिन शायद यही ज़िंदगी का असली इम्तिहान था।
मेरी शादी आदित्य से हुई थी — वह एक सीधा-सादा लड़का है, जो बैंक में काम करता है।
शादी के बाद मैं ससुराल में आई तो सोचा कि अब नया घर, नई शुरुआत… लेकिन वहाँ की हवा कुछ अलग थी।
मेरी सास सुमित्रा देवी घर की मुखिया थीं।
उनका हर फैसला “कानून” जैसा था।
घर के बाकी लोग — ससुर जी, देवर और खुद आदित्य — उनकी बातों के आगे कुछ नहीं कहते थे।
पहले कुछ दिन तो सब ठीक चला, लेकिन धीरे-धीरे असली रंग दिखने लगा।
एक दिन सास ने अचानक कहा —
> “सुनो सोनाली, अब से तुम्हारी सैलरी मेरे हाथ में दोगी। घर चलाने में खर्चा बहुत है, और आदित्य का वेतन तो बच्चों की फीस में चला जाता है।”
मैं चौंक गई। मैंने विनम्रता से कहा —
> “माँजी, मैं मदद तो ज़रूर करूँगी, लेकिन पूरी सैलरी देना मुश्किल है। मुझे भी माँ और भाई की ज़रूरतें देखनी होती हैं।”
बस, इतना कहना था कि माहौल गरम हो गया।
> “अच्छा! तो अब बहू अपनी सैलरी छिपाएगी? हमारे घर आकर अपने मायके वालों को खिलाएगी?”
“हमने तुम्हें बहू बनाया है, कोई मेहमान नहीं!”
आदित्य उस वक़्त चुपचाप खड़ा था। मुझे उम्मीद थी कि वह कुछ बोलेगा, लेकिन उसने सिर झुका लिया।
उस रात मैं बहुत रोई।
मुझे लगा, मैं जिस घर में अपना सबकुछ छोड़कर आई, वहाँ मेरी मेहनत की कीमत सिर्फ रुपये में आँकी जा रही है।
अगले दिन से मैंने अपनी सैलरी का आधा हिस्सा सास को देना शुरू कर दिया।
हर महीने 14,000 रुपये उनके हाथ में चला जाता था।
माँ के लिए पैसे बचाना मुश्किल हो गया, लेकिन मैंने फिर भी चुप रहना चुना — क्योंकि घर टूटे, यह मैं नहीं चाहती थी।
एक दिन सास बोलीं —
> “अगले महीने तेरे देवर की नौकरी लग रही है, उसे नए कपड़े और मोबाइल चाहिए, 10,000 रुपये और दे देना।”
मैंने साफ़ कहा —
> “माँजी, अब और नहीं दे सकती। मुझे भी कुछ ज़रूरतें हैं, हर बार मैं अपनी सैलरी नहीं लुटा सकती।”
उन्होंने गुस्से में कहा —
> “अगर तू इतनी ही कंजूस है तो इस घर से चली जा! हमें ऐसी बहू नहीं चाहिए जो अपने पति के परिवार का साथ न दे।”
उस वक्त मेरे भीतर कुछ टूट गया था, लेकिन उसी पल मैंने अपने अंदर की हिम्मत भी महसूस की।
मैंने शांत स्वर में कहा —
> “माँजी, मैं बहू हूँ, गुलाम नहीं। मैंने आपकी सेवा करने की कसम खाई है, अपनी पहचान खोने की नहीं।
अगर इस घर में रहने की शर्त पैसे हैं, तो मैं ये घर छोड़ दूँगी।”
पूरा घर सन्न रह गया।
आदित्य ने भी पहली बार सिर उठाकर अपनी माँ से कहा —
> “माँ, अब बहुत हुआ। सोनाली हर महीने घर संभालती है, फिर भी आपने उसे कभी इज़्ज़त नहीं दी।
अगर सोनाली जाएगी, तो मैं भी उसके साथ जाऊँगा।”
सास कुछ देर तक चुप रहीं, फिर धीरे-धीरे कमरे से निकल गईं।
उस दिन के बाद बहुत कुछ बदल गया।
आदित्य ने अलग किराए का घर लिया।
हमने मिलकर हर महीने बजट बनाया, कुछ बचत की और कुछ अपनी माँ को दी, लेकिन अपनी इच्छा से, दबाव में नहीं।
आज हमारी शादी को तीन साल हो चुके हैं।
हम दोनों की ज़िंदगी आसान नहीं है, लेकिन अब उसमें सम्मान है।
कभी-कभी सोचती हूँ, अगर उस दिन मैंने डरकर चुप्पी साध ली होती, तो शायद आज भी किसी के आदेश पर जी रही होती।
अंत में एक बात...
हर बहू के पास अपनी एक पहचान होती है।
सास होना सम्मान की बात है, हुकूम चलाने का
अधिकार नहीं।
और बहू होना किसी की गुलामी नहीं — यह रिश्ते निभाने का अवसर है, खुद को मिटाने का नहीं।
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