सुख का असली ठिकाना
“रीता... अब तो तू शहर में रहती है, बड़ा घर है, सब सुविधा है, कभी गाँव भी चली आ न!”
बड़ी बहन कमला दीदी फोन पर बोलीं।
“दीदी, गाँव में क्या रखा है? मिट्टी की दीवारें, टूटी छत, और वो पुराना हैंडपंप? अब मैं वहीं क्यों आऊँ?”
रीता ने हँसते हुए जवाब दिया, “यहाँ तो चारों तरफ़ सुख ही सुख है — बड़ी गाड़ी, नौकर, ठंडी हवा, और नाम-दाम सब कुछ!”
“फिर भी एक बार आ जाओ न,” कमला ने कहा, “पिताजी का घर है, तुम्हारी याद में अब भी वो नीम का पेड़ खड़ा है, वही चौपाल, वही आवाजें…”
“दीदी, आपको तो आदत है उस माहौल की, पर मैं तो अब शहर की हूँ।”
“ठीक है बहन, जब मन करे तब आ जाना,” कमला ने फोन रख दिया।
कुछ महीने बीते।
रीता के पति संजय बहुत बिज़ी रहते थे, बेटा अर्णव पढ़ाई के लिए विदेश चला गया, और बेटी नेहा हॉस्टल में रहती थी।
वो बड़े से बंगले में अकेली पड़ गई थी।
हर सुबह नौकर चाय लाते, नौकरानी सफाई करती, ड्राइवर गाड़ी खड़ी रखता — पर बात करने वाला कोई नहीं था।
वो खिड़की से बाहर देखती तो सिर्फ़ ऊँची दीवारें और बंद दरवाज़े नज़र आते।
धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि घर में शोर नहीं, बस सन्नाटा है।
एक दिन उसने सोचा — “चलो, दीदी के यहाँ गाँव चलती हूँ, थोड़ा मन बदल जाएगा।”
अगले दिन वह कार से अपने गाँव पहुंची।
जैसे ही गाँव के बाहर की सड़क पर उतरी, मिट्टी की खुशबू और नीम के पेड़ की छाँव ने उसे रोक लिया।
बच्चे मैदान में खेल रहे थे, और कोई दूर से आवाज़ दे रहा था —
“अरे रीता बिटिया आ गईं! कितने दिनों बाद आई हो!”
कमला दीदी ने दौड़कर गले लगाया, “बहन, तेरा चेहरा देखकर तो मन खिल उठा!”
रीता मुस्कराई, लेकिन उसका मन थोड़ा झिझक रहा था।
घर वही पुराना था — दीवारों पर चूना उखड़ा हुआ, छत से धूप झरती थी, और आँगन में गाय बंधी थी।
पहले दिन रीता को सब कुछ अजीब लगा।
बिजली कभी जाती, कभी आती।
रात को मच्छर थे, और पंखे की हवा धीमी थी।
लेकिन दूसरे दिन जब सुबह नीम के पेड़ के नीचे चाय पीते हुए दीदी ने कहा —
“यहाँ हर दिन कोई न कोई मिलने आता है, कोई दुख बाँटता है, कोई हँसी।”
तो रीता सोच में पड़ गई।
वो बच्चों के साथ बैठी, बुढ़ी अम्मा से बातें कीं, खुद चूल्हे पर रोटी सेंकी।
हवा में मिट्टी की खुशबू और हँसी की गूँज थी।
यहाँ कोई नौकर नहीं था, पर हर कोई मदद करने को तैयार था।
तीसरे दिन रीता ने देखा —
दीदी सुबह उठकर खेतों में काम देखने गईं, फिर सब्ज़ी बनाई, हँसते हुए पड़ोसन को बुलाया, और दोपहर में आराम से चौखट पर बैठकर बातें करने लगीं।
रीता ने पूछा, “दीदी, तुम्हें कभी बुरा नहीं लगता कि तुम्हारे पास ना गाड़ी है, ना नौकर, ना वो बड़ी-बड़ी चीज़ें?”
कमला मुस्कराईं, “नहीं रीता, हमारे पास वो सब है जो खरीदा नहीं जा सकता — सुकून, अपनापन और नींद में चैन।”
रीता की आँखें भर आईं।
उसे याद आया —
उसके घर में सब कुछ है, मगर न हँसी है, न प्यार की आवाज़।
वहाँ कोई उसके साथ बैठकर चाय नहीं पीता, कोई उसका हाल नहीं पूछता।
तीन दिन बाद जब वापसी का समय आया, तो रीता बोली,
“दीदी, अब तो मन नहीं कर रहा लौटने का।”
कमला हँस पड़ीं, “अरे बहन, शहर वालों को गाँव का स्वाद लग जाए तो वो लौट नहीं पाते!”
रीता ने गले लगाकर कहा,
“दीदी, आज समझी — सुख बड़ा घर, गाड़ी या नौकरों में नहीं होता…
सुख तो उस जगह होता है जहाँ दिल को सुकून और लोगों का प्यार मिले।”
जब रीता शहर लौटी तो उसने अपने ड्राइवर से कहा,
“अब गाड़ी धीमे चलाना... मुझे जल्दी कहीं नहीं जाना।”
वो अपने महंगे सोफे पर बैठी, आँखें बंद कर बोली —
“सुख का असली ठिकाना दिल में होता है, घर के साइज में नहीं।”
सीख:
> “सच्चा सुख वही है जहाँ दिल को अपनापन महसूस हो —
चाहे वह मिट्टी का घर हो या महल।”
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