माँ के हाथ का स्वाद

एक भारतीय मध्यमवर्गीय रसोई का दृश्य — मेज पर बैठा परिवार मुस्कराते हुए खाना खा रहा है। रीना थाली परोस रही है, सास सुधा देवी के चेहरे पर खुशी और आश्चर्य का भाव है, पति निखिल तारीफ करते हुए मुस्करा रहा है। रसोई में गर्म-गर्म रोटियाँ और रंग-बिरंगी सब्ज़ियाँ रखी हैं। माहौल में अपनापन और संतोष झलक रहा है।

 

"रीना, ज़रा जल्दी-जल्दी काम कर ले, मुझे आज ऑफिस जल्दी निकलना है।"

निखिल ने टेबल पर बैठते हुए कहा।


रीना ने जल्दी से टोस्ट और चाय परोसी और बोली —

“हाँ, बस दो मिनट में पराठे ले आती हूँ।”


इतने में सासू माँ, सुधा देवी कमरे से निकलीं और नाश्ते की प्लेट देखते ही बोलीं —

"अरे बेटा, ये क्या सूखी-सूखी चीज़ें रोज़ बना देती है, ना पराठे में मक्खन, ना अचार ढंग का।

तुम्हें याद है निखिल, मेरे हाथ के पराठे कैसे होते थे? मोटे-मोटे, ऊपर से घी टपकता हुआ!"


निखिल मुस्कराया —

"हाँ माँ, आपके पराठों का तो कोई जवाब नहीं था।"


रीना ने हल्की सी मुस्कान दबाई, लेकिन भीतर कुछ चुभ गया।

वो रोज़ कोशिश करती थी कि सास को और पति को पसंद आए खाना —

कभी कम नमक, कभी ज़्यादा तेल, कभी रंग हल्का, कभी मिर्च तेज़।

पर हर बार कुछ न कुछ कमी रह ही जाती।


शाम को पड़ोसन सीमा आई, तो बोली —

"रीना, आज बहुत दिन बाद आई हूँ, क्या बना रही हो?"


"मटर-पनीर और पुलाव," रीना ने मुस्कराकर कहा।


सुधा देवी वहीं बैठी थीं, बोलीं —

"अरे इसका मटर-पनीर मत खाना, इसमें न स्वाद होता है, न खुशबू।

मेरे ज़माने में तो लोग उँगलियाँ चाटते थे!"


सीमा ने माहौल हल्का करने की कोशिश की —

"अरे भाभी जी, अब ज़माना बदल गया, अब तो लोग कम मसाले खाते हैं।"


रीना ने हँसते हुए हामी भरी, पर अंदर अंदर आँखें भीग गईं।

उसे लगा जैसे उसका हर काम गलत है, हर कोशिश बेकार।


रात में निखिल बोला —

"रीना, माँ बुरा नहीं मानती, बस उन्हें आदत है पुराने स्वाद की।

तुम बस थोड़ा उनका तरीका सीख लो।"


"निखिल, क्या मैं इतनी सालों बाद भी सिर्फ सीखने के लिए रहूँ यहाँ?"

रीना ने हल्के से कहा, पर आवाज़ में ठहराव था।

"मैं रोज़ मेहनत करती हूँ, पर जो चीज़ माँ के हाथ की नहीं होती, वो कभी अच्छी लग ही नहीं सकती।"


निखिल चुप रहा।

वो जानता था, रीना सही कह रही है।


कुछ दिन ऐसे ही बीत गए।

फिर एक दिन रीना ने सोचा — "क्यों न कुछ नया किया जाए?"


अगले रविवार को उसने घर के लिए पूरी तरह हेल्दी थाली बनाई —

बिना ज़्यादा तेल, लेकिन बहुत स्वादिष्ट।

रागी रोटी, मूंग की दाल, लौकी का कोफ्ता, और डेज़र्ट में गाजर की खीर।


तीनों टेबल पर बैठ गए।

सुधा देवी ने प्लेट देखी, पहले तो कुछ कहा नहीं,

फिर पहला निवाला लिया…

और उनकी आँखें थोड़ी फैल गईं —

"अरे ये… ये तो बहुत बढ़िया बना है!

कम तेल में भी इतना स्वाद कैसे आ गया?"


रीना मुस्कराई —

"माँ, आज मैंने टीवी पर देखा था — 'स्वाद भी, सेहत भी' वाला तरीका। सोचा, ट्राय कर लूं।"


निखिल ने भी तारीफ की —

"वाह रीना, आज तो सच में बहुत अच्छा बना है!"


उस दिन पहली बार सुधा देवी ने कहा —

"बेटा, कल से तू ही मेरे लिए भी यही बना दिया कर, अब घी-तेल नहीं चाहिए।"


रीना ने महसूस किया कि कभी-कभी लोग स्वाद के नहीं, आदत के बंधक होते हैं।

पर अगर प्यार से, समझदारी से किया जाए, तो बदलाव भी स्वाद बन जाता है।


उस रात रीना ने डायरी में लिखा —


> “माँ के हाथ के खाने जैसा कुछ नहीं होता,

पर अगर अपने

 हाथों में सच्चाई और लगन हो,

तो वही स्वाद फिर से जिंदा किया जा सकता है।”

#ParivaarKiKahani #GharKaKhaana


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