❝ अपनी बहू, पराई नहीं होती ❞
सुबह की ठंडी हवा में आँगन में तुलसी के पास दीया जल रहा था।
सीमा जी अपने सिर पर आँचल लिए तुलसी को जल चढ़ा रही थीं। पीछे से बहू नीति धीरे-धीरे आई और बोली —
“माँजी, चाय बना दूँ?”
सीमा जी ने बिना मुड़े कहा —
“हाँ बना दे, पर दूध थोड़ा कम डालना। आजकल दूध बहुत जल्दी खत्म हो जाता है।”
नीति मुस्कुराई, “ठीक है माँजी।”
वह कुछ कहना चाहती थी, पर सीमा जी का रुख देखकर चुप रह गई।
अभी शादी को दो महीने ही हुए थे।
नीति शहर में पली-बढ़ी थी, पढ़ी-लिखी और सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी।
पर सास सीमा जी को हमेशा लगता कि शहर की लड़कियाँ बस काम और फैशन जानती हैं, घर नहीं संभाल सकतीं।
एक दिन ननद रीना घर आई। आते ही बोली —
“अरे वाह! भाभी तो दफ्तर भी जाती हैं और घर भी संभालती हैं। अच्छा है भाई, मम्मी को तो अब आराम मिल गया।”
सीमा जी को यह बात चुभ गई।
“आराम? अभी तो बहू को सीखा भी नहीं, और तुम कह रही हो मम्मी को आराम!
कौन सा बड़ा काम कर लिया है इसने? दो पराठे बनाकर समझती है रसोई पर राज कर लिया!”
रीना हँसकर चुप हो गई, पर नीति का चेहरा उतर गया।
रात को नीति ने धीरे से पति अभिषेक से कहा —
“तुम्हारी माँ मुझसे न जाने क्यों नाराज़ रहती हैं। मैं तो बस अपना काम करती हूँ।”
अभिषेक ने प्यार से कहा —
“माँ ऐसी नहीं हैं, बस थोड़ी पारंपरिक हैं। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।”
पर “धीरे-धीरे” बीतता गया, और ठीक होना तो जैसे रास्ता ही भूल गया।
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समाज का ताना...
एक दिन पास की पड़ोसी सरला चाची आईं।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
“अरे सीमा, बड़ी समझदारी से बहू लाई है। नौकरी भी करती है और कुछ दहेज-वहेज तो आया नहीं, पर कमाई कर लेती है तो ठीक ही है!”
सीमा जी मुस्कुराईं तो सही, पर भीतर कुछ जल गया।
“हूँ... आजकल की लड़कियाँ दहेज नहीं लातीं, कमाई लाती हैं।
पर हम पुराने लोग हैं, हमें तो घर की रौनक चाहिए, नौकरी नहीं।”
नीति ने यह सब सुना, पर चुप रह गई।
उसने सोचा — कितनी भी कोशिश कर लूँ, माँजी को कभी खुश नहीं कर पाऊँगी।
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दिवाली आई।
नीति के मायके से मिठाई, दीये और कुछ कपड़े आए।
सीमा जी ने सामान देखा और बड़बड़ाईं —
“बस? दिवाली पर इतना-सा?
हमारे यहाँ तो बहुओं के मायके से गहने आते हैं। यहाँ तो मिठाई तक लोकल दुकान की है!”
नीति अब चुप नहीं रह सकी —
“माँजी, मेरे माता-पिता ने अपनी हैसियत से भेजा है। उनके लिए भी ये बहुत है। आपको ब्रांडेड मिठाई चाहिए थी तो मैं खुद ले आती।”
“बहू, ज़बान संभालकर! बड़ों से ऐसे बात नहीं करते।”
“माँजी, मैं सिर्फ इतना कह रही हूँ कि मायके का मज़ाक उड़ाना अच्छा नहीं लगता।
आपको मेरा मायका छोटा लगे, पर मेरे लिए वो सबसे बड़ा है।”
घर में सन्नाटा छा गया।
अभिषेक ने बीच-बचाव किया, “बस माँ, नीति कुछ गलत नहीं कह रही।”
सीमा जी तमतमाईं —
“अब बेटा भी बहू के साथ मिल गया! ठीक है, दोनों जाओ अपने मायके, हमें अकेला छोड़ दो!”
नीति की आँखों में आँसू आ गए।
उसने धीरे से कहा —
“अगर मेरे यहाँ रहना आपको बोझ लगता है, तो मैं सच में चली जाती हूँ।”
और वह कमरे से निकल गई।
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पछतावा..
उस रात अभिषेक ने पत्नी को मनाने की बहुत कोशिश की, पर नीति मायके चली गई।
घर में जैसे सन्नाटा उतर आया।
सीमा जी के कानों में बार-बार वही शब्द गूंजते —
“आपको मेरा मायका छोटा लगे, पर मेरे लिए वो सबसे बड़ा है।”
कुछ दिन बीते।
सीमा जी को महसूस हुआ कि घर की रौनक जैसे चली गई हो।
सुबह की चाय, आँगन की हँसी, बहू की बातों की मिठास — सब गायब।
एक दिन उन्होंने खुद अभिषेक से कहा —
“बेटा, चलो बहू को वापस लाते हैं। शायद गलती मेरी ही थी।”
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वे दोनों नीति के मायके पहुँचे।
सीमा जी ने बहू के सामने हाथ जोड़ दिए —
“बहू, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हारी अच्छाई नहीं देख पाई।
लोग क्या कहेंगे, इसी चिंता में तुम्हारा दिल दुखा दिया।
अब समझ आई है कि बहू कोई पराई नहीं होती — अपनी ही बेटी होती है।”
नीति की आँखों से भी आँसू बह निकले।
“माँजी, मैंने कभी आपको गलत नहीं समझा। बस आपकी स्वीकृति चाहती थी।”
सीमा जी ने गले लगाते हुए कहा —
“चलो घर चलें, दीया तुम्हारे बिना अधूरा लगता है।”
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घर लौटकर सीमा जी ने खुद सबके सामने कहा —
“अब ये घर मेरी बहू का है, और इसका हर निर्णय मेरी इज्ज़त है।
समाज कुछ भी कहे, हमें अपने परिवार की खुशी देखनी चाहिए, न कि दिखावा।”
उस दिन से सीमा जी के चेहरे की सख्ती पिघल ग
ई।
अब वही सीमा जी रोज़ कहतीं —
“बहू नहीं, मेरी बेटी है नीति।”
और सच में —
जहाँ समझ होती है, वहाँ रिश्ते खिल उठते हैं। 🌸

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