❝ कड़ाही की खुशबू ❞

 



सुबह के सात बज चुके थे।

रसोई से बर्तनों की खटपट की आवाज़ आ रही थी।

मंजरी चाय चढ़ा रही थी कि तभी सासु माँ रमा देवी अंदर आईं—


“बहू, ज़रा जल्दी बना दे, मुझे मंदिर भी जाना है।”


“जी माँजी, बस बन ही गया।”

मंजरी ने जल्दी से गैस बढ़ाया और चाय कपों में डालने लगी।


“और सुन, आज कढ़ी चावल मत बनाना। पंडित जी आ रहे हैं, उन्हें आलू बैंगन की सब्ज़ी पसंद है।”


“ठीक है माँजी।”


इतना कहकर मंजरी रसोई में जुट गई।

धीरे-धीरे सारा घर जाग गया—देवर विनय, ननद गुंजन, ससुर जी और पति अनूप।

सब अपने-अपने काम में लग गए,

पर मंजरी वहीं गैस के सामने खड़ी रही—

कभी सब्ज़ी काटती, कभी आटा गूँधती, कभी झूठे बर्तन साफ़ करती।



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दोपहर में जब सब खाने बैठे,

तो सब्ज़ी की खुशबू पूरे घर में फैल गई।


“वाह बहू, क्या बढ़िया आलू बैंगन बनाया है!”

ससुर जी बोले।


“हाँ, हाँ, पर थोड़ा नमक कम है।”

रमा देवी ने तुरन्त टोका।


मंजरी मुस्कुराई, “अगली बार ध्यान रखूँगी माँजी।”


सब खा चुके, पर मंजरी ने खुद के लिए खाना बाद में रखा।

जैसे ही उसने रोटी तोड़ी, तभी सास की आवाज़ आई—


“बहू! वो पंडित जी का थाल उठा दे ज़रा।”


वो उठ गई।

और रोज़ की तरह खुद का खाना ठंडा पड़ गया।



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कुछ दिन ऐसे ही बीते।

एक दिन मंजरी बीमार पड़ गई।

गले में दर्द, हल्का बुखार—

पर सासु माँ बोलीं,

“ज़रा सी तबियत खराब है तो क्या हुआ, दो रोटियाँ बना ही सकती है। काम से भागने की आदत मत डाल।”


मंजरी ने कुछ नहीं कहा, बस उठकर फिर से रसोई में लग गई।

उसके चेहरे पर थकान साफ़ दिख रही थी,

पर उसके हाथ वैसे ही चलते रहे जैसे मशीन के।



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एक दिन घर में ननद गुंजन की सहेलियाँ आने वाली थीं।

“मंजरी, आज कुछ स्पेशल बना लेना—छोले, पनीर, पुलाव और मिठाई भी।”

“ठीक है माँजी, बना दूँगी।”


पर जैसे ही वो रसोई पहुँची,

गैस खत्म!


“अरे गैस खत्म हो गई, अब क्या करूँ?”

अनूप ऑफिस जा रहा था, बोली, “सुनो, सिलेंडर खत्म है, लौटते वक्त ले आना।”

“अरे यार, मैं तो देर हो जाऊँगा, किसी और से बोल दो।”

वो चला गया।


गुंजन बोली, “भाभी, तुम ही किसी तरह मैनेज कर लो ना, मेरी फ्रेंड्स आ जाएँगी अभी।”


मंजरी ने मन ही मन कहा,

“हर चीज़ मेरे ऊपर ही क्यों छोड़ देते हैं ये लोग…”


उसने पड़ोसन से सिलेंडर माँग लिया, और किसी तरह सारा खाना बना दिया।

जब सब लड़कियाँ आईं तो खाने की तारीफ करते नहीं थकीं।


“गुंजन, तेरी भाभी तो बहुत टेस्टी खाना बनाती है।”

“हाँ हाँ, सबकी यही आदत होती है शादी के बाद,” गुंजन ने हँसते हुए कहा।


मंजरी बस मुस्कुरा दी।



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रात को जब अनूप घर लौटा,

तो उसने देखा, मंजरी थक कर सोफ़े पर ही सो गई थी।

उसके हाथों में जलने के निशान थे, और माथे पर पसीना।


“मंजरी, तुझे आराम भी करना चाहिए…”

“आराम का वक्त कहाँ है, सबको मुझसे ही उम्मीद रहती है।”

उसकी आँखों में नमी थी।


अनूप को पहली बार एहसास हुआ कि उसकी पत्नी कितनी मेहनत करती है।



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अगली सुबह उसने माँ से कहा—

“माँ, अब से हम सब मिलकर काम करेंगे। मंजरी अकेली नहीं।”


“क्या मतलब?”

“मतलब ये कि जब हम सब साथ रहते हैं, तो काम भी साथ करना चाहिए।

मंजरी बीमार भी थी, पर उसने कभी शिकायत नहीं की।”


रमा देवी पहले तो भड़क उठीं,

“अरे बेटा, घर की बहुएँ काम ही तो करती हैं।”


“माँ, बहू भी इंसान है, भगवान नहीं।”


उनकी आँखें नीचे झुक गईं।



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उस दिन के बाद से घर का माहौल थोड़ा बदल गया।

रमा देवी अब खुद सब्ज़ी काट देतीं,

गुंजन बर्तन साफ़ करती,

और अनूप रोटी बेल देता।


मंजरी मुस्कुराती रहती,

क्योंकि अब घर में सिर्फ खाने की नहीं,

बल्कि प्यार की खुशबू आने लगी थी।



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एक दिन सासु माँ रसोई में आईं और बोलीं,

“बहू, आज तू नहीं, मैं खाना बनाऊँगी।”

“अरे माँजी, क्यों परेशान हो रही हैं?”

“नहीं बहू, आज तुझे आराम चाहिए।”


रसोई से जल्द ही खुशबू आने लगी—

रमा देवी की बनाई कड़ाही की खुशबू।

जब सब खाने बैठे,

तो मंजरी बोली—

“माँजी, बहुत स्वाद है! बस थोड़ा नमक कम है।”


सब हँस पड़े।

रमा देवी भी मुस्कुराईं और बोलीं—

“सही कहा, अब समझ आया न बहू, रोज़ खाना बनाना कितना मुश्किल होता है।”



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उस दिन से मंजरी को न सिर्फ प्यार,

बल्कि

 सम्मान भी मिलने लगा।

अब घर में सिर्फ दस तरह की सब्जियाँ नहीं,

बल्कि दस तरह के रिश्ते खिलने लगे थे—

समझ, अपनापन, सम्मान, और साथ निभाने का वादा।


                             भाग - 2


समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया।

मंजरी की शादी को अब पूरे पंद्रह साल हो चुके थे।

घर में अब सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा—

रमा देवी अब उम्रदराज़ हो चुकी थीं,

गुंजन की भी शादी हो गई थी,

और मंजरी का बेटा अंकित कॉलेज जाने लगा था।


लेकिन मंजरी की ज़िंदगी में अब एक और नई खुशी आ गई थी—

उसकी छोटी बेटी सिया।


सिया बिल्कुल अपनी माँ पर गई थी—

हंसमुख, ज़िद्दी और थोड़ी नटखट।



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एक दिन सुबह का वक्त था।

रसोई में मंजरी चाय बना रही थी,

कि तभी सिया आई—


“माँ, मैं स्कूल नहीं जा रही आज।”

“क्यों बेटा?”

“टीचर ने कहा है कल प्रैक्टिकल टेस्ट है, कुकिंग का।

पर मुझे तो कुछ बनाना ही नहीं आता।”


मंजरी मुस्कुराई,

“तो फिर आज हम दोनों साथ में बनाएंगे, ठीक?”

“क्या?”

“कड़ाही की खुशबू।”


सिया हँस पड़ी,

“ये कौन सी डिश है माँ? ऐसा तो कोई नाम ही नहीं।”


मंजरी ने उसकी आँखों में देखा और बोली,

“वो डिश जो सिर्फ स्वाद से नहीं, दिल से बनती है।”



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फिर दोनों रसोई में जुट गईं।

मंजरी ने गैस जलाई,

“सबसे पहले ये सब्ज़ियाँ धोना, फिर काटना।”

“उफ्फ, माँ! इतना टाइम लगता है क्या?”

“हाँ, पर जब तू इन्हें प्यार से करेगी, तो थकान भी नहीं लगेगी।”


सिया धीरे-धीरे सीखती रही।

वो कभी प्याज़ के छिलके उड़ाती,

तो कभी टमाटर गिरा देती।

मंजरी बस मुस्कुराती रही—

उसे अपनी शुरुआती शादी के दिन याद आने लगे।



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तभी सासु माँ रमा देवी भी रसोई में आईं।

अब वो बहुत शांत और कोमल स्वभाव की हो चुकी थीं।


“बहू, क्या हो रहा है रसोई में?”

“माँजी, सिया को कुकिंग सिखा रही हूँ।”

“अच्छा अच्छा, तो फिर मुझे भी थोड़ा सिखा देना।”

सब हँस पड़े।



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दोपहर में जब खाना तैयार हुआ,

तो सिया गर्व से बोली—

“माँ, मैंने बनाया है ये सब!”

“सच?”

“हाँ, सब्ज़ी, रोटी और चटनी — सब खुद!”


रमा देवी ने एक कौर खाया,

और बोलीं—

“वाह बेटा, तू तो अपनी माँ से भी अच्छी रसोइया बनेगी।”


सिया खिल उठी,

“सच में दादी?”

“हाँ, क्योंकि तूने ये खाना दिल से बनाया है।”



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शाम को जब मंजरी बरामदे में बैठी थी,

तो अनूप उसके पास आया—


“जानती हो मंजरी, तुमने इस घर को सिर्फ संभाला नहीं,

बल्कि बदला है।

पहले इस घर में सिर्फ बर्तनों की आवाज़ थी,

अब हँसी की भी गूँज है।”


मंजरी मुस्कुरा दी।

“बस इतना चाहती हूँ कि सिया सीखे,

खाना सिर्फ बनाने के लिए नहीं,

बल्कि रिश्ते जोड़ने के लिए बनता है।”



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समय बीतता गया।

सिया अब बड़ी हो गई थी, कॉलेज खत्म कर रही थी।

एक दिन उसने कहा—


“माँ, मेरे कॉलेज में आज ‘माँ की रेसिपी डे’ है।

मैं आपकी कड़ाही की खुशबू बनाऊँगी।”


मंजरी के चेहरे पर एक गर्व भरी मुस्कान आई,

“ज़रूर बेटा, बना ले…

और उसमें मेरा नहीं, अपना प्यार डालना।”



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कॉलेज में जब सिया ने वो डिश बनाई,

तो जजों ने पूछा—

“इसका नाम क्या है बेटा?”

“कड़ाही की खुशबू।

क्योंकि इसमें मसालों से ज़्यादा,

माँ के प्यार की खुशबू है।”


पूरा हाल तालियों से गूंज उठा।

सिया ने पहला इनाम जीता।



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शाम को जब वो ट्रॉफी लेकर घर लौटी,

तो मंजरी की आँखों में आँसू थे।

सिया बोली,

“माँ, आज आपकी ‘कड़ाही की खुशबू’ पूरे कॉलेज में महक गई।”


मंजरी ने उसे गले से लगा लिया—

“बेटा, अब समझ गई,

वो खुशबू सिर्फ मेरे हाथों में नहीं थी…

वो हमारे पूरे घर के प्यार में थी।”



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उस रात घर के आँगन में हल्की हवा चल रही थी।

कड़ाही में सब्ज़ी पक रही थी,

और रसोई से वही पुरा

नी,

“कड़ाही की खुशबू”

फिर पूरे घर में फैल रही थी।


अब वो खुशबू सिर्फ खाने की नहीं,

बल्कि एक नई पीढ़ी के संस्कारों की थी।



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🌼 समाप्त 🌼

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