❝ सास का बदलता दिल ❞
सुबह का समय था।
रसोई से बर्तनों की खनक और गैस की सिसकारियाँ आ रही थीं।
सावित्री देवी ड्राइंग रूम में अख़बार पढ़ रही थीं कि तभी बहू साक्षी की आवाज़ आई —
“माँ जी, आज नाश्ते में क्या बनाऊँ? पराठे या पोहे?”
“पोहे बना लो बहू, और साथ में चाय थोड़ी फीकी रखना, आज तबियत थोड़ी भारी है।”
सावित्री देवी ने जवाब दिया।
साक्षी ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है माँ जी।”
साक्षी अपने काम में लगी थी। तभी सावित्री देवी का फ़ोन बजा — उनकी बेटी नेहा का कॉल था।
“माँ! सुनो ना, अगले हफ्ते छुट्टियाँ हैं, मैं बच्चों के साथ आ रही हूँ।”
सावित्री देवी की आँखों में चमक आ गई।
“अरे वाह बेटा! बहुत अच्छा किया, घर में रौनक हो जाएगी।”
फोन रखते ही उन्होंने पुकारा —
“बहू सुनो, नेहा अगले हफ्ते आ रही है बच्चों के साथ। तुम ज़रा ऊपर वाला कमरा साफ़ करवा देना, और अलमारी में थोड़ा सामान हटा देना ताकि उसे परेशानी न हो।”
“जी माँ जी, सब कर दूँगी,” साक्षी ने आदर से कहा।
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नेहा का आगमन...
एक हफ्ते बाद नेहा अपने दो बच्चों के साथ घर पहुँची।
घर की दीवारें बच्चों की हँसी से गूँज उठीं।
सावित्री देवी का चेहरा खिल उठा।
“आ गई मेरी गुड़िया!” उन्होंने नेहा को गले लगाया।
पर वही समय साक्षी के लिए परीक्षा का था।
सुबह से लेकर रात तक वो रसोई, बच्चों, कपड़ों और घर के काम में लगी रहती।
नेहा आराम से सोफे पर बैठ कर मोबाइल चलाती, कभी कहती —
“भाभी, ज़रा बच्चों के लिए जूस बना दो।”
कभी —
“भाभी, मम्मी के लिए चाय बना देना , मुझे थोड़ी देर में बाहर जाना है।”
साक्षी बिना कुछ बोले सब करती रही।
वो जानती थी कि सास अपनी बेटी से बहुत प्यार करती हैं, और उसे कुछ कहना उन्हें बुरा लगेगा।
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एक दिन की घटना...
उस दिन सुबह-सुबह सावित्री देवी और नेहा ड्राइंग रूम में बैठी बातें कर रही थीं कि रसोई से तेज़ आवाज़ आई।
“छन!”
साक्षी की हाथ से दूध का भगोना गिर गया था।
सावित्री देवी दौड़ीं —
“अरे साक्षी! इतना ध्यान नहीं रख सकती? सारा दूध बर्बाद कर दिया! अब बच्चों के लिए क्या बनेगा?”
साक्षी चुपचाप झुककर सफाई करने लगी।
वो कुछ कहना चाहती थी, पर बोली नहीं।
उसके हाथ जल गए थे, पर उसने अपने आँसू रोक लिए।
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रात को जब पति आदित्य घर आया, तो उसने देखा कि साक्षी के हाथ पर पट्टी बँधी है।
“ये क्या हुआ?” उसने पूछा।
“कुछ नहीं... दूध गिर गया था। माँ जी ने देखा भी।”
साक्षी ने धीमे से कहा।
आदित्य ने तुरंत माँ से पूछा,
“माँ, साक्षी के हाथ जल गए हैं, आपने डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाया?”
सावित्री देवी बोलीं,
“अरे बेटा, ये सब तो छोटे-मोटे हादसे हैं, औरतों को तो आदत होती है, इतना क्या।”
आदित्य ने गहरी साँस ली —
“माँ, अगर ये हादसा दीदी के साथ हुआ होता, तो क्या आप भी ऐसा ही कहतीं?”
सावित्री देवी चुप रह गईं।
उन्हें वो दिन याद आया जब नेहा शादी के बाद आई थी और हल्का सा हाथ जल जाने पर उन्होंने खुद उसके लिए हल्दी-घी लगाया था।
उस रात सावित्री देवी सो नहीं पाईं।
उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने अनजाने में भेदभाव कर दिया था — बेटी और बहू में।
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बदलाव की शुरुआत...
अगले दिन उन्होंने खुद साक्षी के कमरे में जाकर दरवाज़ा खटखटाया।
“बहू, मैं अंदर आ सकती हूँ?”
साक्षी चौंक गई।
“माँ जी! ऐसा क्यों कह रही हैं, ये घर आपका है।”
सावित्री देवी मुस्कुराईं,
“नहीं बहू, अब ये घर हमारा है — तेरा भी, मेरा भी।”
उन्होंने आगे बढ़कर साक्षी के हाथ पर मलहम लगाया और बोलीं,
“कल मैंने जो कहा, वो गलत था। मुझे अपनी बेटी और बहू में फर्क नहीं करना चाहिए था।”
साक्षी की आँखों से आँसू निकल आए, “माँ जी, आपको माफ़ी माँगने की ज़रूरत नहीं... आप मेरे लिए माँ जैसी हैं।”
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समय का चक्र..
कुछ दिन बाद नेहा जाने लगी।
“माँ, मैं कल निकल जाऊँगी, बच्चों का स्कूल खुल रहा है।”
“ठीक है बेटा, पर इस बार भाभी का भी धन्यवाद कर देना, उसने तेरे बच्चों की बहुत देखभाल की है।”
नेहा मुस्कुराई, “हाँ माँ, सच में, भाभी बहुत धैर्यवान हैं।”
साक्षी ने बस मुस्कुरा दिया।
नेहा चली गई।
घर फिर शांत हो गया, लेकिन सावित्री देवी के मन में बहुत कुछ बदल चुका था।
अब जब भी साक्षी थकती, सावित्री देवी खुद कहतीं —
“बहू, आज तू आराम कर, मैं रसोई संभाल लूँगी।”
धीरे-धीरे घर में एक नई गर्मजोशी फैल गई।
जहाँ पहले “सास-बहू” का रिश्ता था, अब “माँ-बेटी” का स्नेह बस गया था।
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कहानी का संदेश:
माँ का दिल वही होता है — बस फर्क नज़र का होता है।
जब नज़र बराबरी की हो जाए, तो बहू भी बेटी जैसी लगने लगती है।

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