थोड़ा वक्त अपने लिए

 

एक भारतीय मध्यमवर्गीय दंपत्ति बालकनी में सुबह की चाय पीते हुए, मुस्कुराते चेहरे, बच्चों के साथ हँसी-खुशी भरा परिवार — जीवन की छोटी खुशियों का एहसास।


“यार सीमा, सच कहूँ तो अब बहुत थक गया हूँ।”

रवि ने शाम की चाय का कप हाथ में लेते हुए कहा।


सीमा ने चौंककर पूछा — “क्यों? आज फिर बॉस ने डाँटा क्या?”


“नहीं, बॉस तो अब रोज की आदत हो गई है। पर अब तो खुद से ही नाराज़गी होने लगी है। सुबह से रात तक बस काम ही काम... दफ्तर, ट्रैफिक, बिल, जिम्मेदारियाँ... कभी लगता है ज़िंदगी बस निकल रही है, जी नहीं रहा।”


सीमा ने धीरे से कहा, “तो फिर ज़रा रुक जाओ रवि... खुद के लिए भी थोड़ा वक्त निकालो।”


रवि हँस पड़ा — “तुम्हें लगता है इतना आसान है?”


सीमा ने कप टेबल पर रखते हुए मुस्कराई — “आसान नहीं है, लेकिन नामुमकिन भी नहीं। बस शुरुआत करनी होती है।”


रवि ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उस रात उसे सीमा की बातें बार-बार याद आईं।

वो सोचने लगा — “आख़िर क्या है जो मुझे इतना परेशान करता है? काम तो हर किसी को करना पड़ता है, फिर मैं क्यों इतना बोझ महसूस करता हूँ?”


अगली सुबह रवि ने कुछ अलग करने का फैसला किया।

हर दिन की तरह जल्दी में भागने के बजाय, आज उसने अलार्म से पाँच मिनट पहले उठकर बालकनी में बैठ गया।

ठंडी हवा चल रही थी, आसमान गुलाबी था। बहुत दिनों बाद उसने सूरज को उगते देखा।


उसने रसोई से सीमा को आवाज़ दी —

“सीमा, आज चाय मैं बनाऊँगा।”


सीमा पहले तो हैरान हुई, फिर मुस्करा दी — “वाह! आज सूरज कहाँ से निकला?”


“पूर्व से,” रवि हँसते हुए बोला, “लेकिन आज मैंने सच में देखा।”


दोनों ने साथ में चाय पी।

बच्चे भी उठ गए थे, घर में माहौल शांत था।

रवि ने खुद बच्चों को तैयार किया, टिफिन बाँधे और स्कूल बस तक छोड़ आया।


ऑफिस में भी आज रवि कुछ हल्का महसूस कर रहा था।

पहली बार उसने बिना झुँझलाए पूरे दिन काम किया।

लंच ब्रेक में मोबाइल पर न्यूज स्क्रॉल करने के बजाय उसने पुराने कॉलेज के दोस्त को फोन लगाया —

“संदीप! कैसे हो यार? बहुत साल हो गए।”

संदीप ने कहा, “अरे, तू तो गायब ही हो गया था!”

“हाँ,” रवि बोला, “अब लौटने की कोशिश कर रहा हूँ।”


शाम को घर लौटते वक्त उसने एक छोटा सा गुलदस्ता खरीदा।

सीमा के हाथ में गुलदस्ता देते हुए रवि बोला,

“कुछ खास नहीं लाया, बस तुम्हारे लिए एक छोटा सा थैंक यू।”


सीमा मुस्कराई — “किस बात का?”

“इस बात का कि तुमने मुझे याद दिलाया... ज़िंदगी सिर्फ़ जिम्मेदारियों का नाम नहीं है, इसमें थोड़ा ‘अपना’ भी होना चाहिए।”


उस दिन दोनों ने साथ में खाना बनाया, बच्चों ने भी मदद की।

किसी ने टीवी नहीं चलाया, बस बातें हुईं, हँसी हुई।


रात को बिस्तर पर लेटे हुए रवि सोच रहा था —

“सच कहा था सीमा ने...

ज़िंदगी को आसान बनाना हमारे ही हाथ में है।

बस थोड़ा सा नजरिया बदलना होता है —

हर दिन कुछ मिनट अपने लिए, अपने परिवार के लिए।”


उसकी आँखें बंद हुईं, लेकिन चेहरे

 पर मुस्कान थी।

बहुत दिनों बाद वो शांति से सोया था।


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