एक कप चाय का वादा
सुबह के सात बजे थे। दिल्ली की ठंडी हवा में कोहरा तैर रहा था।
रेलवे स्टेशन पर लोगों की भीड़ हमेशा की तरह भाग रही थी — किसी को ट्रेन पकड़नी थी, किसी को उतरकर घर पहुँचना था।
भीड़ के बीच, एक छोटी सी लड़की अपने बिखरे बालों के साथ प्लेटफॉर्म के किनारे बैठी थी।
नाम था रिया, उम्र बस दस साल।
सामने एक टूटी बाल्टी में कुछ चाय के कप रखे थे, और बगल में एक पुराना चूल्हा धुआँ छोड़ रहा था।
वो हर सुबह यहाँ आती थी।
चाय बेचती थी — ताकि अपनी बीमार दादी के लिए दवा ला सके।
आज उसकी आँखों में चिंता थी।
क्योंकि दादी की दवा खत्म हो चुकी थी और जेब में सिर्फ़ तीन रुपये बचे थे।
इतने में तो दूध भी नहीं आता।
उसी वक्त प्लेटफॉर्म पर एक आदमी आया — सूट पहने, हाथ में मोबाइल, जल्दी में।
उसका नाम था अभिषेक वर्मा, एक बड़ी कंपनी का अधिकारी।
वो रोज़ इसी ट्रेन से ऑफिस जाता था।
रिया ने हिम्मत जुटाकर कहा —
“साहब, चाय लीजिए न, बहुत ठंडी है आज।”
अभिषेक ने झटके से कहा, “नहीं चाहिए, जल्दी में हूँ।”
वो बढ़ गया, लेकिन तभी उसने पीछे मुड़कर देखा —
छोटी सी लड़की, ठंड में काँपती, और उसके हाथों में वो सस्ती स्टील की केतली।
कुछ कदम आगे जाकर वो रुक गया।
वो वापस लौटा और बोला, “एक कप देना।”
रिया मुस्कुराई, जल्दी से कप में चाय उँडेल दी।
उसके छोटे-छोटे हाथ ठंड से नीले पड़ रहे थे।
अभिषेक ने चाय ली, एक घूंट पिया और बोला —
“अच्छी है। तुम्हारा नाम क्या है?”
“रिया,” उसने धीरे से कहा।
“पढ़ाई करती हो?”
रिया ने सिर झुका लिया, “पहले करती थी, पर अब दादी बीमार हैं, इसलिए काम करती हूँ।”
अभिषेक कुछ पल खामोश रहा।
फिर अपने बैग से एक नोटबुक और पेन निकाला, और बोला —
“ये रख लो। जब भी फुर्सत मिले, इसमें कुछ न कुछ लिखना। चाहे कविता, या अपनी बात। बस कुछ लिखना मत छोड़ना।”
रिया की आँखें चमक उठीं।
वो मुस्कराकर बोली — “साहब, जब आप फिर आएँगे न, तब मैं आपको पढ़कर सुनाऊँगी।”
अभिषेक ने सिर हिलाया, ट्रेन आई, और वो चला गया।
पर रिया के मन में जैसे उम्मीद की एक लौ जल गई थी।
अगले कई दिन गुजर गए।
अभिषेक हर सुबह आता, चाय पीता, और रिया उसे कुछ नया सुनाती —
कभी कोई कविता, कभी किसी सपने की कहानी।
धीरे-धीरे, वो रिश्ता बन गया — एक चायवाली बच्ची और एक अफसर के बीच,
जहाँ पैसों का नहीं, दिल का लेन-देन था।
एक दिन, अभिषेक नहीं आया।
फिर अगले दिन भी नहीं।
रिया बेचैन होने लगी — क्या हुआ होगा?
तीन दिन बाद, वो आया — थका हुआ, और हाथ में एक थैला।
रिया दौड़कर बोली — “साहब, आप आए! मैं डरी थी कि आप भूल गए।”
अभिषेक मुस्कराया, “कभी नहीं। बस ऑफिस का काम था।”
फिर उसने थैला उसकी ओर बढ़ाया —
अंदर थी गर्म ऊनी स्वेटर, दूध का पैकेट और दवा की शीशी।
रिया हैरान रह गई, बोली — “पर ये सब क्यों?”
अभिषेक ने कहा — “क्योंकि मुझे भी कभी बचपन में किसी ने ऐसे ही मदद की थी।
अब मेरी बारी है।”
धीरे-धीरे स्टेशन के लोग रिया को पहचानने लगे।
कोई उसे खाना देता, कोई पुरानी किताबें।
कुछ महीने बाद, अभिषेक ने उसकी दादी के इलाज का इंतज़ाम कर दिया।
और रिया को पास के सरकारी स्कूल में दाखिला भी दिलाया।
अब वो सुबह चाय बेचती थी, और दोपहर को पढ़ने जाती थी।
उसकी नोटबुक कहानियों से भर गई थी — सपनों की, सच्चाई की, और उम्मीद की।
एक साल बाद —
अभिषेक जब स्टेशन पहुँचा, तो रिया वहाँ नहीं थी।
उसने पूछा, “वो छोटी चायवाली लड़की कहाँ गई?”
किसी ने कहा, “अब वो स्कूल जाती है, साहब। कभी-कभी छुट्टियों में ही आती है।”
अभिषेक के चेहरे पर मुस्कान आई।
वो वही बेंच पर बैठ गया, जहाँ से वो चाय पीता था।
तभी पीछे से आवाज़ आई —
“साहब, आज चाय मेरी तरफ़ से है।”
वो मुड़ा — रिया खड़ी थी, यूनिफ़ॉर्म में, हाथ में केतली लिए।
“आज स्कूल से जल्दी छुट्टी थी,” उसने हँसते हुए कहा।
अभिषेक ने मुस्कराकर कप लिया।
“और लिखना कैसा चल रहा है?”
रिया ने गर्व से कहा — “मैंने कहानी लिखी है — ‘एक कप चाय का वादा’।
आप चाहें तो सुनाऊँ?”
अभिषेक की आँखें चमक उठीं।
वो बोला — “बिलकुल, रिया। मैं तो इसी दिन का इंतज़ार कर रहा था।”
रिया ने नोटबुक खोली, और पढ़ने लगी —
उस कहानी में एक आदमी था, जो हर दिन चाय पीने आता था,
और एक लड़की थी, जो सपने देखना नहीं छोड़ती थी।
उस दिन प्लेटफॉर्म पर बैठे लोगों ने कुछ खास देखा —
एक छोटी बच्ची, जो अब सिर्फ़ “चायवाली” नहीं थी,
वो एक कहानी लिखने वाली बन चुकी थी।
और अभिषेक के लिए, वो एक कप चाय अब सिर्फ़ चाय का प्याला नहीं,
बल्कि ज़िंदगी का सबसे गर्म एहसास बन गया था।
सीख:
कभी-कभी किसी की ज़िंदगी बदलने के लिए बहुत बड़ी चीज़ नहीं चाहिए —
बस एक कप चाय, और थोड़ा सा भरोसा काफ़ी होता है।
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